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पावनखिंड: वीरता की अमर गाथा

 


भारत के इतिहास में अनेक युद्ध और संघर्ष ऐसे हुए हैं जो वीरता और बलिदान की मिसाल बन गए। ऐसा ही एक अद्भुत उदाहरण है पावनखिंड की लड़ाई। यह घटना मराठा इतिहास की एक अमिट छाप छोड़ने वाली कहानी है, जहाँ वीरता, निष्ठा और बलिदान की पराकाष्ठा देखने को मिलती है।


पावनखिंड कहाँ है?


पावनखिंड महाराष्ट्र के कोल्हापुर ज़िले में स्थित एक घाटी है, जो विशाळगढ़ और पन्हाला किलों के बीच पड़ती है। यह स्थान अब श्रद्धा और सम्मान का प्रतीक बन चुका है, जहाँ हर साल हज़ारों लोग इतिहास को नमन करने आते हैं।


इतिहास की पृष्ठभूमि


सन् 1660 में आदिलशाही सेनापति सिद्दी जौहर ने पन्हाला किले को घेर लिया था। महीनों तक चले इस घेरे में छत्रपति शिवाजी महाराज और उनकी सेना फँस गई थी। जब राशन खत्म होने लगा और कोई विकल्प न बचा, तब शिवाजी महाराज ने एक साहसी योजना बनाई — रात के अंधेरे में किले से बाहर निकलने की।


बाजी प्रभु देशपांडे का बलिदान


शिवाजी महाराज के इस योजना को सफल बनाने के लिए उनके एक निष्ठावान सेनापति, बाजी प्रभु देशपांडे ने अपनी टुकड़ी के साथ पावनखिंड में मोर्चा संभाला। उन्होंने तय किया कि जब तक शिवाजी महाराज विशाळगढ़ सुरक्षित नहीं पहुँचते, तब तक वे दुश्मनों को रोके रखेंगे।


बाजी प्रभु ने अपने साथ महज 300-400 मावलों के साथ हज़ारों आदिलशाही सैनिकों को घंटों तक रोके रखा। जब विशाळगढ़ से तोप की आवाज़ आई — जो शिवाजी महाराज के सुरक्षित पहुँचने का संकेत था — तब तक वे बुरी तरह घायल हो चुके थे। उन्होंने अंतिम साँस तक लड़ते हुए अपना बलिदान दिया।


पावनखिंड क्यों कहलाया?


इस वीरता और बलिदान की भूमि को पहले 'घोडखिंड' कहा जाता था, लेकिन बाजी प्रभु और उनके मावलों के बलिदान के बाद इसे पावनखिंड (पवित्र खिंड) कहा जाने लगा।

पावनखिंड का संदेश

पावनखिंड सिर्फ एक युद्ध नहीं था, बल्कि यह उस अद्वितीय निष्ठा और बलिदान का प्रतीक है जो एक सच्चे योद्धा में होता है। यह हमें सिखाता है कि राष्ट्र और धर्म के लिए कुछ भी बलिदान किया जा सकता है।

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